मंगलवार, 19 नवंबर 2013

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गुरुवार, 27 अगस्त 2009

श्री वल्लभाचार्य

श्री नाथ जी के आराध्य महाप्रभु वल्लभाचार्य का प्राकट्य सन् १४७८ में वैशाख कृष्ण एकादशी को हुआ। कांकरवाड निवासी लक्ष्मण भट्ट की द्वितीय पत्नी इल्लभा ने आपको जन्म दिया। काशी में जतनबर में आपने शुद्धाद्वेैत ब्रह्मवाद का प्रचार किया और वेद रुपी दधि से प्राप्त नवनीत रुप पुष्टि मार्ग का प्रवर्तन किया। आपका विवाह काशी के श्री देवभ की पुत्री महालक्ष्मी से हुआ जिनसे उन्हें दो पुत्र गोपीनाथ और विट्ठलेश हुए। आपने ८४ लाख योनी में भटकते जीवों के उद्धारार्थ ८४ वैष्णव ग्रन्थ, ८४ बैठके और ८४ शब्दों का ब्रह्म महामंत्र दिया। काशी में अपने आराध्य को वर्तमान गोपाल मंदिर में स्थापित किया और सन् १५३० में संन्यास ले लिया। हनुमान् घाट पर आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को गंगा में जल समाधि ले ली।
आचार्यपाद श्री वल्लभाचार्य का जन्म चम्पारण्य में रायपुर मध्यप्रान्त में हुआ था। वे उत्तारधि तैलंग ब्राह्मण थे। इनके पिता लक्ष्मण भट्टजी की सातवीं पीढ़ी से ले कर सभी लोग सोमयज्ञ करते आये थे। कहा जाता है कि जिसके वंश में सौ सोमयज्ञ कर लिए जाते हैं, उस कुल में महापुरुष का जन्म होता है। इसी नियम के साक्ष्य के रुप में श्री लक्ष्मण भ के कुल में सौ सोमयज्ञ पूर्ण हो जाने से उस कुल में श्री वल्लाभाचार्य के रुप में भगवान् का प्रादुर्भाव हुआ। कुछ लोग उन्हें अग्निदेव का अवतार मानते हैं। सोमयज्ञ की पूर्कित्त के उपलक्ष्य में लक्ष्मण भ जी एक लाख ब्राह्मणों को भोजन कराने के उद्देश्य से सपरिवार काशी आ रहे थे तभी रास्ते में श्री वल्लभ का चम्पारण्य में जन्म हुआ। बालक की अद्भुत प्रतिभा तथा सौन्दर्य देख कर लोगों ने उसे 'बालसरस्वती वाक्पति' कहना प्रारंभ कर दिया। काशी में ही अपने विष्णुचित् तिरुमल्ल तथा माधव यतीन्द्र से शिक्षा ग्रहण की तथा समस्त वैष्णव शास्रों में पारंगत हो गये।
काशी से आप वृन्दावन चले गये। फिर कुछ दिन वहाँ रह कर तीर्थाटन पर चले गये। उन्होंने विजयनगर के राजा कृष्णदेव की सभा में उपस्थित हो कर बड़े-बड़े विद्वानों को शास्रार्थ में पराजित किया। यहीं उन्हें वैष्णवाचार्य की उपाधि से विभूषित किया गया।
राजा ने उन्हें स्वर्ण सिंहासन पर बैठा कर उनका साङ्गोपाङ्ग पूजन किया तथा स्वर्ण राशि भेंट की। उसमें से कुछ भाग ग्रहण कर उन्होंने शेष राशि उपस्थित विद्वानों और ब्राह्मणों में वितरित कर दी।
श्री वल्लभ वहां से उज्जैन आये और क्षिप्रा नदी के तट पर एक अश्वत्थ पेड़ के नीचे निवास किया। वह स्थान आज भी उनकी बैठक के रुप में विख्यात है। मथुरा के घाट पर भी ऐसी ही एक बैठक है और चुनार के पास उनका एक मठ और मन्दिर है। कुछ दिन वे वृन्दावन में रह कर श्री कृष्ण की उपासना करने लगे।
भगवान् उनकी आराधना से प्रसन्न हुए और उन्हें बालगोपाल की पूजा का प्रचार करने का आदेश दिया। अट्ठाईस वर्ष की अवस्था में उन्होंने विवाह किया। कहा जाता है कि उन्होंने भगवान् कृष्ण की प्रेरणा से ही 'ब्रह्मसूत्र' के ऊपर 'अणुभाष्य' की रचना की। इस भाष्य में आपने शाङ्कर मत का खण्डन तथा अपने मत का प्रतिपादन किया है।
आचार्य ने पुष्टिमार्ग की स्थापना की। उन्होंने श्रीमद्भागवत् में वर्णित श्रीकृष्ण की लीलाओं में पूर्ण आस्था प्रकट की। उनकी प्रेरणा से स्थान-स्थान पर श्रीमद्भागवत् का पारायण होने लगा। अपने समकालीन श्री चैतन्य महाप्रभु से भी उनकी जगदीश्वर यात्रा के समय भेंट हुई थी। दोनों ने अपनी ऐतिहासिक महत्ता की एक दूसरे पर छाप लगा दी। उन्होनें ब्रह्मसूत्र, श्रीमद्भागवत् तथा गीता को अपने पुष्टिमार्ग का प्रधान साहित्य घोषित किया। परमात्मा को साकार मानते हुए उन्होंने जीवात्मक तथा जड़ात्मक सृष्टि निर्धारित की। उनके अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ही परब्रह्म हैं।
संसार की अंहता और ममता का त्याग कर श्रीकृष्ण के चरणों में सर्व अर्पित कर भक्ति के द्वारा उनका अनुग्रह प्राप्त करना ही ब्रह्म संबंध है। श्री वल्लभ ने बताया कि गोलोकस्थ श्रीकृष्ण की सायुज्य प्राप्ति ही मुक्ति है। आचार्य वल्लभ ने साधिकार सुबोधिनी में यह मत व्यक्त किया है कि प्राणिमात्र को मोक्ष प्रदान करने के लिये ही भगवान् की अभिव्यक्ति होती है -
गृहं सर्वात्मना त्याज्यं तच्चेत्यक्तुं नशक्यते।
कृष्णाथर्ं तत्प्रयुञ्जीत कृष्णोऽनर्थस्य मोचक:।।
उनके चौरासी शिष्यों में प्रमुख सूर, कुम्भन, कृष्णदास और परमानन्द श्रीनाथ जी की सेवा और कीर्त्तन करने लगे। चारों महाकवि उनकी भक्ति कल्पलता के अमर फल थे।
उनका समग्र जीवन चमत्कार पूर्ण घटनाओं से ओतप्रोत था। गोकुल में भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिये थे।
श्री वल्लभाचार्य महान् भक्त होने के साथ-साथ दर्शनशास्र के प्रकाण्ड विद्वान् थे। उन्होंने ब्रह्मसूत्र पर अणुभाष्य, भागवत् की सुबोधिनी व्याख्या, सिद्धान्त-रहस्य, भागवत् लीला रहस्य, एकान्त-रहस्य, विष्णुपद, अन्त:करण प्रबोध, आचार्यकारिका, आनन्दाधिकरण, नवरत्न निरोध-लक्षण और उसकी निवृत्ति, संन्यास निर्णय आदि अनेक ग्रंथों की रचना की।
वल्लभाचार्य जी के परमधाम जाने की घटना प्रसिद्ध है। अपने जीवन के सारे कार्य समाप्त कर वे अडैल से प्रयाग होते हुए काशी आ गये थे। एक दिन वे हनुमान् घाट पर स्नान करने गये। वे जिस स्थान पर खड़े हो कर स्नान कर रहे थे वहाँ से एक उज्जवल ज्योति-शिखा उठी और अनेक लोगों के सामने श्री वल्लभाचार्य सदेह ऊपर उठने लगे। देखते-देखते वे आकाश में लीन हो गये। हनुमान घाट पर उनकी एक बैठक बनी हुई है। उनका महाप्रयाण वि.सं. १५८३ आषाढ़ शुक्ल ३ को हुआ। उनकी आयु उस समय ५२ वर्ष थी।

महर्षि वेदव्यास

पौराणिक-महाकाव्य युग की महान विभूति, महाभारत, अट्ठारह पुराण, श्रीमद्भागवत, ब्रह्मसूत्र, मीमांसा जैसे अद्वितीय साहित्य-दर्शन के प्रणेता वेदव्यास का जन्म आषाढ़ पूर्णिमा को लगभग ३००० ई. पूर्व में हुआ था। वेदांत दर्शन, अद्वेैतवाद के संस्थापक वेदव्यास ॠषि पराशर के पुत्र थे। पत्नी आरुणी से उत्पन्न इनके पुत्र थे। पत्नी आरुणी से उत्पन्न इनके पुत्र थे महान बाल योगी शुकदेव। श्रीमद्भागवत गीता विश्व से सबसे बड़े महाकाव्य 'महाभारत' का ही अंश है। रामनगर के किले में और व्यास नगर में वेदव्यास का मंदिर है जहाँ माघ में प्रत्येक सोमवार मेला लगता है। गुरु पूर्णिमा का प्रसिद्ध पर्व व्यास जी की जयन्ती के उपलक्ष्य में मनाया जाता है।
पुराणों तथा महाभारत के रचयिता महर्षि का मन्दिःर व्यासपुरी में विद्यमान है जो काशी से पाँच मील की दूरी पर स्थित है। महाराज काशी नरेश के रामनगर दुर्ग में भी पश्चिम भाग में व्यासेश्वर की मूर्ति विराजमान है जिसे साधारण जनता छोटा वेदव्यास के काम से जानती है। वास्तव में वेदव्यास की यह सब से प्राचीन मूर्ति है। व्यासजी द्वारा काशी को शाप देने के कारण विश्वेश्वर ने व्यासजी को काशी से निष्कासित कर दिया था। तब व्यासजी लोलार्क मंदिर के आग्नेय कोण में गंगाजी के पूर्वी तट पर स्थित हुए।
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कुबेरनाथ शुक्ल-काशी वैभव पृ.१७४
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इस घटना का उल्लेख काशी खंड में इस प्रकार है -
लोलार्कादं अग्निदिग्भागे, स्वर्घुनी पूर्वरोधसि।
स्थितों ह्यद्य्यापि पश्चेत्स: काशीप्रसाद राजिकाम्।।
स्कंद पुराण काशी खंड ९६/२०१
व्यासजी ने पुराणों तथा महाभारत की रचना करने के पश्चात् ब्रह्मसूत्रों की रचना भी यहाँ की थी। वाल्मीकि की ही तरह व्यास भी संस्कृत कवियों के लिये उपजीव्य हैं। महाभारत में उपाख्यानों का अनुसरण कर अनेक संस्कृत कवियों ने काव्य, नाटक आदि की सृष्टि की है। महाभारत के संबंध में स्वयं व्यासजी की ही उक्ति अधिक सटीक है - "इस ग्रंथ में जो कुछ है, वह अन्यत्र है, परंतु जो इसमें नहीं है, वह अन्यत्र कहीं भी नहीं है।'ंगा।
यमुना के किसी द्वीप में इनका जन्म हुआ था। व्यासजी कृष्ण द्वेैपायन कहलाये क्योंकि उनका रंग श्याम था। वह पैदा होते ही माँ की आज्ञा से तपस्या करने चले गये थे और कह गये थे कि जब भी तुम स्मरण करोगी, मैं आ जा वे धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा विदुर के जन्मदाता ही नहीं, अपितु विपत्ति के समय वे छाया की तरह पाण्डवों का साथ भी देते थे। उन्होंने तीन वर्षों के अथक परिश्रम से महाभारत ग्रंथ की रचना की थी -
त्रिभिर्वर्षे: सदोत्थायी कृष्णद्वेैपायनोमुनि:।
महाभारतमाख्यानं कृतवादि मुदतमम्।।
आदिपर्व - (५६/५२)
जब इन्होंने धर्म का ह्रास होते देखा तो इन्होंने वेद का व्यास अर्थात विभाग कर दिया और वेदव्यास कहलाये। वेदों का विभाग कर उन्होंने अपने शिष्य सुमन्तु, जैमिनी, पैल और वैशम्पायन तथा पुत्र शुकदेव को उनका अध्ययन कराया तथा महाभारत का उपदेश दिया। आपकी इस अलौकिक प्रतिभा के कारण आपको भगवान् का अवतार माना जाता है।
संस्कृत साहित्य में वाल्मीकि के बाद व्यास ही सर्वश्रेष्ठ कवि हुए हैं। इनके लिखे काव्य 'आर्ष काव्य' के नाम से विख्यात हैं। व्यास जी का उद्देश्य महाभारत लिख कर युद्ध का वर्णन करना नहीं, बल्कि इस भौतिक जीवन की नि:सारता को दिखाना है। उनका कथन है कि भले ही कोई पुरुष वेदांग तथा उपनिषदों को जान ले, लेकिन वह कभी विचक्षण नहीं हो सकता क्योंकि यह महाभारत एक ही साथ अर्थशास्र, धर्मशास्र तथा कामशास्र है।
१. यो विध्याच्चतुरो वेदान् साङ्गोपनिषदो द्विज:।
न चाख्यातमिदं विद्य्यानैव स स्यादिचक्षण:।।

२. अर्थशास्रमिदं प्रोक्तं धर्मशास्रमिदं महत्।
कामाशास्रमिदं प्रोक्तं व्यासेना मितु बुद्धिना।।
महा. आदि अ. २: २८-८३

गोस्वामी तुलसीदास

श्री रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास का जन्म सन् १५६८ में राजापुर में श्रावण शुक्ल ७ को हुआ था। पिता का नाम आत्माराम और माता का नाम हुलसी देवी था। तुलसी की पूजा के फलस्वरुप उत्पन्न पुत्र का नाम तुलसीदास रखा गया। पत्नी रत्नावली के प्रति अति अनुराग की परिणति वैराग्य में हुई। अयोध्या और काशी में वास करते हुए तुलसीदास ने अनेक ग्रन्थ लिखे। चित्रकूट में हनुमान् जी की कृपा से इन्हे राम जी का दर्शन हुआ। काशी और अयोध्या में (संवत् १६३१) 'रामचरितमानस' और 'विनय पत्रिका' की रचना की। तुलसी की 'हनुमान् चालीसा' का पाठ करोड़ो हिन्दू नित्य करते हैं। तुलसी घाट पर ही निवास करते हुए श्रावण शुक्ल तीज को राम में लीन हो गये।
गोस्वामी तुलसीदास जी को महर्षि वाल्मीकि का अवतार माना जाता है। उनका जन्म बांदा जिले के राजापुर गाँव में एक सरयू पारीण ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनका विवाह सं. १५८३ की ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी को बुद्धिमती (या रत्नावली) से हुआ। वे अपनी पत्नी के प्रति पूर्ण रुप से आसक्त थे। एक बार जब उनकी पत्नी मैके गयी हुई थी उस समय वे छिप कर उसके पास पहुँचे। पत्नी को अत्यंत संकोच हुआ उसने कहा -
हाड़ माँस को देह मम, तापर जितनी प्रीति।
तिसु आधो जो राम प्रति, अवसि मिटिहि भवभीति।।
तुलसी के जीवन को इस दोहे ने एक नयी दिशी दी। वे उसी क्षण वहाँ से चल दिये और सीधे प्रयाग पहुँचे।
फिर जगन्नाथ, रामेश्वर, द्वारका तथा बदरीनारायण की पैदल यात्रा की। चौदह वर्ष तक के निरंतर तीर्थाटन करते रहे। इस काल में उनके मन में वैराग्य और तितिक्षा निरंतर बढ़ती चली गयी। इस बीच आपने श्री नरहर्यानन्दजी को गुरु बनाया।
गोस्वामी जी के संबंध में कई कथाएँ प्रचलित हैं। कहते हैं जब वे प्रात:काल शौच के लिये गंगापार जाते थे तो लोटे में बचा हुआ पानी एक पेड़ेे की जड़ में डाल देते थे। उस पेड़ पर एक प्रेत रहता था। नित्य पानी मिलने से वह प्रेत संतुष्ट हो गया और गोस्वामी जी सामने प्रकट हो कर उनसे वर माँगने की प्रार्थना करने लगा। गोस्वामी जी ने रामचन्द्र जी के दर्शन की लालसा प्रकट की। प्रेत ने बताया कि अमुक मंदिर में सायंकाल रामायण की कथा होती है, यहाँ हनुमान् जी नित्य ही कोढ़ी के भेष में कथा सुनने आते हैं। वे सब से पहले आते हैं और सब के बाद में जाते हैं। गोस्वामी जी ने वैसा ही किया और हनुमान् जी के चरण पकड़ कर रोने लगे। अन्त में हनुमान् जी ने चित्रकूट जाने की आज्ञा दी।
आप चित्रकूट के जंगल में विचरण कर रहे थे तभी दो राजकुमार - एक साँवला और एक गौरवर्ण धनुष-बाण हाथ में लिये, घोड़ेे पर सवार एक हिरण के पीछे दौड़ते दिखायी पड़े। हनुमान् जी ने आ कर पूछा, "कुछ देखा? गोस्वामी जी ने जो देखा था, बता दिया। हनुमान् जी ने कहा,'वे ही राम लक्ष्मण थे।' वि.सं. १६०७ का वह दिन। उस दिन मौनी अमावस्या थी। चित्रकूट के घाट पर तुलसीदास जी चंदन घिस रहे थे। तभी भगवान् रामचन्द्र जी उनके पास आये और उनसे चन्दन माँगने लगे। गोस्वामी जी ने उन्हें देखा तो देखते ही रह गये। ऐसी रुपराशि तो कभी देखी ही नहीं थी। उनकी टकटकी बंध गयी। उस दिन रामनवमी थी। संवत १६३१ का वह पवित्र दिन। हनुमान् जी की आज्ञा और प्रेरणा से गोस्वामी जी ने रामचरितमानस लिखना प्रारंभ किया और दो वर्ष, सात महीने तथा छब्बीस दिन में उसे पूरा किया। हनुमान् जी पुन: प्रकट हुए, उन्होंने रामचरितमानस सुनी और आशीर्वाद दिया, 'यह रामचरितमानस तुम्हारी कीर्ति को अमर कर देकी।'
सच्चरित्र होने के कारण आप के हाथ से कुछ न कुछ चमत्कार हो जाते थे। एक बार उनके आशीर्वाद से एक विधवा का पति जीवित हो उठा। यह खबर बादशाह तक पहुँची। उसने उन्हें बुला भेजा और कहा, 'कुछ करामात दिखाओ।' गोस्वामी जी ने कहा कि 'रामनाम' के अतिरिक्त मैं कुछ भी करामात नहीं जानता। बादशाह ने उन्हें कैद कर लिया और कहा कि जब तक करामात नहीं दिखाओगे, तब तक छूट नहीं पाओगे। तुलसीदास जी ने हनुमान् जी की स्तुति की। हनुमान् जी ने बंदरों की सेना से कोट को नष्ट करना प्रारम्भ किया। बादशाह इनके चरणों पर गिर पड़े और उनसे क्षमायाचना की।
तुलसीदास जी के समय में हिंदु समाज में अनेक पंथ बन गये थे। मुसलमानों के निरंतर आतंक के कारण पंथवाद को बल मिला था। उन्होंने रामायम के माध्यम से वर्णाश्रम धर्म, अवतार धर्म, साकार उपासना, मूर्कित्तपूजा, सगुणवाद, गो-ब्राह्मण रक्षा, देवादि विविध योनियों का सम्मान एवं प्राचीन संस्कृति और वेदमार्ग का मण्डन तथा तत्कालीन मुस्लिम अत्याचारों और सामाजिक दोषों का तिरस्कार किया।
वे अच्छी तरह जानते थे कि राजाओं की आपसी फूट और सम्प्रदाय वाद के झगड़ों के कारण भारत में मुसलमान विजयी हो रहे हैं। उन्होंने गुप्त रुप से यही बातें रामचरितमानस के माध्यम से बतलाने का प्रयास किया किंतु राजाश्रय न होने के कारण लोग उनकी बात समझ नहीं पाये और रामचरितमानस का राजनीतिक उद्देश्य सफल नहीं हो पाया। यद्यपि रामचरितमानस को तुलसीदास जी ने राजनीतिक शक्ति का केन्द्र बनाने का प्रयत्न नहीं किया फिर भी आज वह ग्रंथ सभी मत-मतावलम्बियों को पूर्ण रुप से मान्य है। सब को एक सूत्र में बाँधने का जो कार्य शंकराचार्य ने किया था, वही कार्य बाद के युग में गोस्वामी तुलसीदास जी ने किया। गोस्वामी तुलसीदास ने अधिकांश हिदू भारत को मुसलमान होने से बचाया।
आप के लिखे बारह ग्रंथ अत्यंत प्रसिद्ध हैं -
दोहावली, कवित्तरामायण, गीतावली, रामचरित मानस, रामलला नहछू, पार्वतीमंगल, जानकी मंगल, बरवै रामायण, रामाज्ञा, विन पत्रिका, वैराग्य संदीपनी, कृष्ण गीतावली। इसके अतिरिक्त रामसतसई, संकट मोचन, हनुमान बाहुक, रामनाम मणि, कोष मञ्जूषा, रामशलाका, हनुमान चालीसा आदि आपके ग्रंथ भी प्रसिद्ध हैं।
१२६ वर्ष की अवस्था में संवत् १६८० श्रावण शुक्ल सप्तमी, शनिवार को आपने अस्सी घाट पर अपना शहरी त्याग दिया।
संवत सोलह सै असी, असी गंग के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर।।

श्री शंकराचार्य

अद्वेैत दर्शन के महान् आचार्य शंकर का प्रादुर्भाव ७८० ईस्वी में हुआ। केरल प्रदेश में अलवाई नदी के तट पर बसे कालाड़ी ग्राम में महान् भक्त शिव गुरु के घर माता विसिष्टा ने वैशाख शुक्ल पंचमी को इन्हें जन्म दिया। शंकर की कृपा से जन्में बालक का नाम शंकर पड़ा। आठवें वर्ष में शंकर ने सन्यास ले लिया। गुरु की खोज में ओंकारेश्वर पहुँचे जहाँ इन्हें गोविन्दाचार्य मिले। तीन वर्ष अध्ययन करके बारह वर्ष की आयु में ये काशी पहुँचे। मणिकर्णिका पर यह बाल-आचार्य वृद्ध शिष्यों को 'मौन व्याख्यान' देता था। काशी में गंगा स्नान करके लौटते समय एक चांडाल को मार्ग से हटो कहा तब चांडाल ने इन्हें 'अद्वेैत' का वास्तविक ज्ञान दिया और काशी में चांडाल रुपधारी शंकर से पूर्ण शिक्षा प्राप्त कर शंकर ने १४ वर्ष की उम्र में ब्रह्मसूत्र, गीता, उपनिषद् पर भाष्य लिखे। सोलह वर्ष की उम्र में वेदव्यास से भेंट हुई।
प्रयाग में कुमारिल भ से मिले, महिष्मति में मंडन मिश्र से शास्रार्थ किया। इन्होंने केदार धाम में ३२ वर्ष की आयु में शिवसायुज्य प्राप्त किया।
भगवान् शंकर के संबंध में जो भी पाठ्य सामग्री प्राप्त है तथा उनके जीवन संबंध में जो भी घटनाएँ मिलती हैं उनसे ज्ञात होता है कि वे एक अलौकिक व्यक्ति थे। उनके व्यक्तित्व में प्रकाण्ड पाण्डित्य, गंभीर विचार शैली, अगाध भगवद्भक्ति आदि का दुर्लभ समावेश दिखायी देता है। उनकी वाणी में मानों सरस्वती का वास था। अपनी बत्तीस वर्ष की अल्पायु में उन्होंने अनेक बृहद् ग्रन्थों की रचना की, पूरा भारत भ्रमण कर अपने विरोधियों को शास्रार्थ में पराजित किया, भारत के चारों कोनों में मठ स्थापित किये तथा डूबते हुए सनातन धर्म की रक्षा की। धर्म संस्थापना के उनके इस कार्य को देख कर यह विश्वास दृढ़ हो उठता है कि वे साक्षात् शंकर के अवतार थे -
"शंकरो शंकर: साक्षात्"।
उनके ही समय में भारत में वेदान्त दर्शन अद्वेैतवाद का सर्वाधिक प्रचार हुआ, उन्हें अद्वेैतवाद का प्रवर्त्तक माना जात है। ब्रह्मसूत्र पर जितने भी भाष्य मिलते हैं उनमें सबसे प्राचीन शंकर भाष्य ही है। उनके जन्म तिथि के संबंध में मतभेद है लेकिन अधिकांश लोगों का यही मानना है कि वे ७८८ ई. में आविर्भूत हुए और ३२ वर्ष की आयु में तिरोहित हुए। उनका जन्म केरल प्रदेश के पूर्णानदी के तटवर्ती कलादी नामक ग्राम में वैशाख शुक्ल ५ को हुआ था। उनके पिता का नाम शिवगुरु तथा माता का नाम सुभद्रा या विशिष्टा था।
उनके बचपन से ही मालूम होने लगा कि किसी महान् विभूति का अवतार हुआ है। पाँचवे वर्ष में यज्ञोपवीत करा कर इन्हें गुरु के घर पढ़ने के लिए भेजा गया और सात वर्ष की आयु में ही आप वेद, वेदान्त और वेदाङ्गों का पूर्ण अध्ययन कर वापस आ गये। वेदाध्ययन के उपरान्त आपने संन्यास ग्रहण करना चाहा किन्तु माता ने उन्हें आज्ञा नहीं दी।
एक दिन वे माँ के साथ नदी पर स्नान करने गये, वहाँ मगर ने उन्हें पकड़ लिया। माँ हाहाकार मचाने लगी। शंकर ने माँ से कहा तुम यदि मुझे संन्यास लेने की अनुमति दो तो मगर मुझे छोड़े देगा। माँ ने आज्ञा दे दी। जाते समय माँ से कहते गये कि तुम्हारी मृत्यु के समय मैं घर पर उपस्थित रहूँगा। घर से चलकर आप नर्मदा तट पर आये, वहाँ गोविन्द-भगवत्पाद से दीक्षा ग्रहण की। उन्होंने गुरु द्वारा बताये गये मार्ग से साधना शुरु कर दी अल्पकाल में ही योग सिद्ध महात्मा हो गये। गुरु की आज्ञा से वे काशी आये। यहाँ उनके अनेक शिष्य बन गये, उनके पहले शिष्य बने सनन्दन जो कालान्तर में पद्मपादाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। वे शिष्यों को पढ़ाने के साथ-साथ ग्रंथ भी लिखते जाते थे। कहते हैं कि एक दिन भगवान विश्वनाथ ने चाण्डाल के रुप में उन्हें दर्शन दिया और ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखने और धर्म का प्रचार करने का आदेश दिया। जब भाष्य लिख चुके तो एक दिन एक ब्राह्मण ने गंगा तट पर उनसे एक सूत्र का अर्थ पूछा। उस सूत्र पर उनका उस ब्राह्मण के साथ आठ दिन तक शास्रार्थ हुआ।
बाद में मालूम हुआ कि ब्राह्मण और कोई नहीं साक्षात् भगवान् वेद व्यास थे। वहाँ के कुरुक्षेत्र होते हुए वे बदरिकाश्रम पहुँचे। उन्होंने अपने सभी ग्रंथ प्राय: काशी या बदरिकाश्रम में लिखे थे, वहाँ से वे प्रयाग गये और कुमारिल भ से भेंट की। कुमारिल भ के कथनानुसार वे माहिष्मति नगरी में मण्डन मिश्र के पास शास्रार्थ के लिए आये। उस शास्रार्थ में मध्यस्थ थीं मण्डन मिश्र की विदुषी पत्नी भारती। इसमें मण्डन मिश्र की पराजय हुई, और उन्होंने शंकराचार्य का शिष्यत्व ग्रहण किया। इस प्रकार भारत-भ्रमण के साथ विद्वानों को शास्रार्थ में पराजित कर वे बदरिकाश्रम लौट आये वहाँ ज्योतिर्मठ की स्थापना की और तोटकाचार्य को उसका माठीधीश बनाया। अंतत: वे केदार क्षेत्र में आये और वहीं इनका जीवन सूर्य अस्त हो गया।
उनके लिखे ग्रंथों की संख्या २६२ बतायी जाती है, लेकिन यह कहना कठिन है कि ये सारे ग्रंथ उन्हीं के लिख हैं। उनके प्रधान ग्रंथ इस प्रकार हैं - ब्रह्मसूत्र भाष्य, उपनिषद् भाष्य, गीता भाष्य, विष्णु सहस्रनाम भाष्य, सनत्सुजातीय भाष्य, हस्तामलक भाष्य आदि।

स्वामी श्रीरामानन्दाचार्य

उत्तरी भारत में तीसरे भक्ति आन्दोलन को समरसता का जन आन्दोलन बनाने वाले 'जाति-पांति पूछै नहिं कोई हरि को भजै सौ हरि का होई" का उद्घोष करने वाले स्वामी रामानन्द जी का प्रादुर्भाव स. १२९९ ई. में माघ कृष्ण सप्तमी को प्रयाग में हुआ। इनकी साधना और कर्मस्थली काशी का पंचगंगा घाट था। इन्होंने अपनी भक्ति धारा से समाज के सभी वर्गों को प्रभावित किया, इसी कारण इनके प्रमुख द्वादश शिष्यों में कबीर, रैदास के अतिरिक्त धन्ना जाट, सेना नाई, पीपर राजा तथा पद्मावती एवं सुरसरी जैसी महिलाएँ भी थीं। गुरुनानक देवजी की वाणी में भी रामानन्द जी के उपदेश सम्मिलित हैं। रामानन्द जी की पूर्ण समर्पित 'प्रपत्ति भक्ति' राम-सीता-लक्ष्मण की त्रयी के प्रति थी। वर्तमान में पंचगंगा घाट स्थित श्रीमठ रामानन्द जी की परम्परा का मूल मठ है। २४ जनवरी को इनकी जयन्ती मनायी जाती है।
आचार्य रामानन्द जी का जन्म प्रयाग में पुण्यसदन या भूरिकम्र्मा नामक एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण के घर में हुआ था। कुल के पुरोहित श्री वाराणसी अवस्थी ने बालक के माता-पिता को उपदेश दिया था कि तीन साल तक बालक को घर से बाहर न निकालना, उसको दूध ही पिलाना और उसे कभी दपंण न दिखाना। अन्नप्राशन संस्कार में उसने खीर का ही स्पर्श किया। बाल्यावस्था से ही इनकी बुद्धि बहुत तीव्र थी। बारह वर्ष की अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते इन्होंने सभी शास्र पढ़ लिये थे। दर्शन शास्र का अध्ययन करने के लिए ये विशेष रुप से काशी आये। एक दिन रामानुज की शिष्य परम्परा के राघवानन्द से आपकी भेंट हुई। उन्होंने इन्हें देखते ही कहा, तुम्हारी आयु बहुत कम है और तुम अभी तक हरी की शरण में नहीं आये हो। इन्होंने राघवानन्द से मन्त्र और दीक्षा ली, उनके शिष्य बन गये और उनसे योग सीखने लगे। उसी समय उनका नाम रामानन्द रखा गया। उन्होंने पंचगंगा घाट पर एक घाटिया की झोपड़ी में रह कर तप करना प्रारंभ कर दिया।
लोगों ने उनसे ऊँचे स्थान पर कुटी बना कर रहने की प्रार्थना की जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया वहाँ रह कर ज्ञानार्जन और तपस्या करने लगे। उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी और बड़े-बड़े विद्वान तथा साधु उनके दर्शन के लिये आने लगे। उनके पास मुसलमान, जैन, बौद्ध, वेदान्ती, शास्रज्ञ, शैव और शाक्त सभी मत के लोग शंकाएँ ले कर आते थे समुचित समाधान पा कर खुशी-खुशी लौट जाते थे।
स्वामी रामानन्द ने राम की उपासना परब्रह्म के रुप में चलायी किंतु विशिष्ट द्वेैतवाद का प्रतिपादन एक नये ढंग से किया। पिछले पाँच सौ से अधिक वर्षों के कालखंड में रामोपासन का सर्वाधिक प्रचार स्वामी रामानन्द ने किया। रामानन्द स्वामी और चैतन्य महाप्रभु ने वैष्णव सम्प्रदाय के आचार्य होते हुए भी भगवान् की शरण में आये मुसलमानों को भी स्वीकार कर अपनी उदारता का परिचय दिया तथा हिंदुओं को मुसलमान होने से बचाया।
उनके शिष्यों में जाट, शूद्र, चमार, मुसलमान और स्री आदि सभी का समावेश था। विचारों से वे अत्यंत उदार थे। उनके इन विचारों के कारण भारत के दक्षिणी और उत्तरी भागों में सहिष्णुता की लहर दौड़ गयी। किंतु बाद में उनके अनुयाइयों में जाति-पाँति के संबंध में केवल इतनी ही उदारता बची रही कि भगवान् की शरण में सभी आ सकते थे। परंतु समाज में सभी वर्णों का अपना अपना स्थान यथावत् बना रहा।
रामायत अथवा श्री रामानन्दी वैष्णव सम्प्रदाय के प्रवर्त्तक के रुप में स्वामी रामानन्द जी का नाम लिया जाता है। वे उच्चकोटि के आध्यात्मिक पुरुष थे। उनके अनुयायी अपने को रामानन्द सम्प्रदाय का ही कहते हैं किंतु उनके शिष्यों की रामानन्द स्वामी के नाम पर कोई परम्परा नहीं चली। उन्होंने रामोपासना की रीति चलायी किंतु वह स्मार्त्तों� में बिना सम्प्रदायवाद के फैली। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस तथा अन्य रचनाओं में उन्हीं के मत का प्रतिपादन किया है।
उन्होंने देश में उस समय चल रहे मुसलमानों के अत्याचार से बचने के लिये जाति-पाँति का बंधन ढीला कर दिया और सब को रामनाम के महामन्त्र का उपदेश दे कर अपने 'रामावत' - सम्प्रदाय में लाना चाहा।
उन्होंने रामानुज के श्री वैष्णव सम्प्रदाय की सीमा तोड़ कर उसे अधिक विस्तृत और उदार बनया। स्वामी रामानन्द ने संसार के लिये महान् कार्य किया। उन्होंने मुख्य रुप से तीन कार्यय किये - १. साम्प्रदायिक कलह को शांत किया। २. बादशाह गयासुद्दीन तुगलक की हिंदू-संहारिणी सत्ता को पूर्णरुप से दबा दिया और ३. हिंदुओं के आर्थिक संकट को भी दूर किया।
स्वामी जी तीर्थयात्रा करने के लिये अपनी शिष्यमंडली और साधु समाज के साथ जगन्नाथ जी, विजय नगर गये। विजयनगर के महाराज बुक्काराम ने इनका भव्य स्वागत किया। कई भण्डारे हुए और साधु ब्राह्मणों ने प्रसाद पाया। स्वामीजी ने राजा को उपदेश दिया, 'राजयोग में भोगविलास हानिकारक है। राजा जहाँ भोगविलास में लिप्त हो जाता है वहाँ राज्य और राजवंश नष्ट हो जाता है।'
उनके शिष्यों की संख्या ५०० से अधिक है। उनके प्रमुख शिष्य हैं - पीपा (क्षत्रिय), कबीर (जुलाहा), सेना (नाई), धन्ना (जाट), रैदास (चमार) आदि। इनके सम्प्रदाय में जाति-पाँति का भेद अवरोध नहीं उत्पन्न कर सकता। श्री रामानन्दाचार्य ने प्रस्थान त्रयी पर भाष्य लिखे हैं। वेदान्त दर्शन का श्री आनन्द भाष्य उनमें अन्यतम है। जीवन के आखिरी क्षणों में स्वामीजी ने अपनी शिष्यमंडली को संबोधित करते हुए कहा, 'सब शास्रों का सार भगवत्स्मरण है जो सच्चे संतो का जीवनसार है। कल - श्री रामनवमी है। मैं अयोध्याजी जाऊँगा। परंतु मैं अकेला ही जाऊँगा। सब लोग यहाँ रहकर उत्सव मनाये। कदाचित् मैं लौट न सकूं। आप लोग मेरी त्रुटियों एवं अविनय आदि को क्षमा कीजियेगा। यह सुन कर सब के नेत्र सजल हो गये। दूसरे दिन १४६७ में स्वामीजी अपनी कुटी में अंतध्र्यान हो गये।

संत रैदास

संत रैदास
(१४३३, माघ पूर्णिमा)
प्राचीनकाल से ही भारत में विभिन्न धर्मों तथा मतों के अनुयायी निवास करते रहे हैं। इन सबमें मेल-जोल और भाईचारा बढ़ाने के लिए सन्तों ने समय-समय पर महत्वपूर्ण योगदान दिया है। ऐसे सन्तों में रैदास का नाम अग्रगण्य है। वे सन्त कबीर के गुरुभाई थे क्योंकि उनके भी गुरु स्वामी रामानन्द थे। लगभाग छ: सौ वर्ष पहले भारतीय समाज अनेक बुराइयों से ग्रस्त था। उसी समय रैदास जैसे समाज-सुधारक सन्तों का प्रादुर्भाव हुआ। रैदास का जन्म काशी में चर्मकार कुल में हुआ था। उनके पिता का नाम रग्घु और माता का नाम घुरविनिया बताया जाता है। रैदास ने साधु-सन्तों की संगति से पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था। जूते बनाने का काम उनका पैतृक व्यवसाय था और उन्होंने इसे सहर्ष अपनाया। वे अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे।
उनकी समयानुपालन की प्रवृति तथा मधुर व्यवहार के कारण उनके सम्पर्क में आने वाले लोग भी बहुत प्रसन्न रहते थे।
रैदास के समय में स्वामी रामानन्द काशी के बहुत प्रसिद्ध प्रतिष्ठित सन्त थे। रैदास उनकी शिष्य-मण्डली के महत्वपूर्ण सदस्य थे।
प्रारम्भ में ही रैदास बहुत परोपरकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था। साधु-सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष आनन्द मिलता था। वे उन्हें प्राय: मूल्य लिये बिना जूते भेंट कर दिया करते थे। उनके स्वभाव के कारण उनके माता-पिता उनसे अप्रसन्न रहते थे। कुछ समय बाद उन्होंने रैदास तथा उनकी पत्नी को अपने घर से अलग कर दिया। रैदास पड़ोस में ही अपने लिए एक अलग झोपड़ी बनकार तत्परता से अपने व्यवसाय का काम करते थे और शेष समय ईश्वर-भजन तथा साधु-सन्तों के सत्संग में व्यतीत करते थे।
उनके जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से समय तथा वचन के पालन सम्बन्धी उनके गुणों का पता चलता है। एक बार एक पर्व के अवसर पर पड़ोस के लोग गंगा-स्नान के लिए जा रहे थे। रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो वे बोले, 'गंगा-स्नान के लिए मैं अवश्य चलता किन्तु एक व्यक्ति को जूते बनाकर आज ही देने का मैंने वचन दे रखा है। यदि आज मैं जूते नहीं दे सका तो वचन भंग होगा। गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहाँ लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा? मन जो काम करने के लिए अन्त:करण से तैयार हो वही काम करना उचित है। मन सही है तो इसे कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है।' कहा जाता है कि इस प्रकार के व्यवहार के बाद से ही कहावत प्रचलित हो गयी कि - मन चंगा तो कठौती में गंगा।
रैदासे ने ऊँच-नीच की भावना तथा ईश्वर-भक्ति के नाम पर किये जाने वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बताया और सबको परसम्पर मिलजुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया।
वे स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करते थे और उन्हें भाव-विभोर होकर सुनाते थे। उनका विश्वास था कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सब एक ही परमेश्वर के विविध नाम हैं। वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों में एक ही परमेश्वर का गुणगान किया गया है।
"कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा।
वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।"
उनका विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परहित-भावना तथा सदव्यवहार का पालन करना अत्यावश्यक है। अभिमान त्याग कर दूसरों के साथ व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों का विकास करने पर उन्होंने बहुत बल दिया। अपने एक भजन में उन्होंने कहा है -
"कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै।
तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।"
उनके विचारों का आशय यही है कि ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है। अभिमान शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति जीवन में सफल रहता है जैसे कि विशालकाय हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है जबकि लघु शरीर की पिपीलिका (चींटी) इन कणों को सरलतापूर्वक चुन लेती है। इसी प्रकार अभिमान तथा बड़प्पन का भाव त्याग कर विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का भक्त हो सकता है।
रैदास की वाणी भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत होती थी। इसलिए उसका श्रोताओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था। उनके भजनों तथा उपदेशों से लोगों को ऐसी शिक्षा मिलती थी जिससे उनकी शंकाओं का सन्तोषजनक समाधान हो जाता था और लोग स्वत: उनके अनुयायी बन जाते थे।
उनकी वाणी का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि समाज के सभी वर्गों के लोग उनके प्रति श्रद्धालु बन गये। कहा जाता है कि मीराबाई उनकी भक्ति-भावना से बहुत प्रभावित हुईं और उनकी शिष्या बन गयी थीं।
'वर्णाश्र अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की।
सन्देह-ग्रन्थि खण्डन-निपन, बानि विमुल रैदास की।।"
आज भी सन्त रैदास के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने अपने आचरण तथा व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता है। विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सदव्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं। इन्हीं गुणों के कारण सन्त रैदास को अपने समय के समाज में अत्याधिक सम्मान मिला और इसी कारण आज भी लोग इन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं।